बांदा,  

 उत्तर प्रदेश के बांदा में खास किस्म के पत्थर पाए जाते हैं, जिन्हें शजर पत्थर कहा जात है। इन स्टोन्स की खास बात ये है कि ये खुद अपनी चित्रकारी करते हैं। दिलचस्प बात ये है कि कोई भी दो शजर पत्थर एक जैसे नहीं होते। ये शजर पत्थर अपने भीतर दिखने वाले खूबसूरत चित्रों के लिए मशहूर हैं। भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी का जिस समय शासन था, उस समय में ब्रिटेन की महारानी क्वीन विक्टोरिया के लिए दिल्ली के दरबार में नुमाइश लगाई गई थी। इस नुमाइश में रानी विक्टोरिया को यह पत्थर इतना ज्यादा पसंद आया था कि वह इसे अपने साथ ब्रिटेन ले गई थीं।


क्या है शजर पत्थर:- बुंदेलखंड के बांदा जिले की केन नदी प्रदेश की इकलौती और देश की दूसरी नदी है जो पत्थरों में रंगीन चित्रकारी करती है। इस नदी में मिलने वाले दुर्लभ पत्थर बेहद खूबसूरत होते हैं जो अपने भीतर दिखने वाली खूबसूरती के लिए मशहूर हैं। इन पत्थरों को ‘शजर’ कहा जाता है। फारसी में शजर पेड़ को कहा जाता है। खास बात यह है कि कोई भी दो शजर पत्थर एक जैसे नहीं होते, मतलब हर एक पत्थर में अलग-अलग चित्रकारी। दुनिया भर में शजर पत्थर सिर्फ भारत की दो नदियों केन और नर्मदा में ही पाये जाते हैं। अरब देशों में इस पत्थर को ‘हकीक’ और भारत में ‘स्फटिक’ कहते हैं।


जब शरद पूर्णिमा की चांदनी रात में किरणें शजर पत्थरों पर पड़ती हैं तो इन पर आकृतियां उभरती हैं:- मशीन से तराशने के बाद शजर पत्थर में झाडियां, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, मानव और नदी की जलधारा के चमकदार रंगीन चित्र उभरते हैं। बांदा के स्थानीय लोगों के मुताबिक, जब शरद पूर्णिमा की चांदनी रात में किरणें शजर पत्थरों पर पड़ती हैं तो इन पर आकृतियां उभरती हैं। उनका कहना है कि चांदनी की किरणों जब पत्थर पर पड़ती हैं तो उनके बीच में जो भी आकृति आती है, वह इन पत्थरों पर उभर आती है। वहीं, वैज्ञानिकों का मानना है कि शजर पत्थर पर उभरने वाली आकृति फंगस ग्रोथ है।


मुगलकाल में शजर पत्थरों के इस्तेमाल से बेजोड़ कलाकृतियां बनाई गईं:- शौकीन लोग अंगूठी में जड़वाते हैं शजर पत्थरों का इस्तेमाल आभूषणों, कलाकृति जैसे ताजमहल, सजावटी सामान व अन्य वस्तुएं जैसे वाल हैंगिंग में लगाने के काम में प्रयोग होता है। मुगलकाल में शजर पत्थरों के इस्तेमाल से बेजोड़ कलाकृतियां बनाई गईं। बांदा और लखनऊ में शजर पत्थर से बने आभूषणों का बड़ा कारोबार होता है। शौकीन लोग इसे अंगूठी में नग के तौर पर भी जड़वाते हैं। राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हस्तशिल्पी द्वारका प्रसाद सोनी बताते हैं कि शजर पत्थर की पहले कटाई और घिसाई होती हैं, जिसके बाद इसे मनचाहे आकर में ढाला जाता है। सोने चांदी में जड़ने के बाद शजर की कीमत और बढ़ जाती है।


400 साल पहले हुई थी खोज:- शजर पत्थर हमेशा से ही केन नदी में मौजूद था, लेकिन 400 साल पहले अरब से आये लोगों ने इसकी पहचान की। वह इसकी खूबसूरती देखकर दंग रह गये थे। इन पत्थरों पर कुदरती रूप से पेड़, पत्ती की आकृति उकेरी थी, जिसके कारण उन्होंने इसका नाम शजर रख दिया। व्यापारियों के मुताबिक, ईरान में इसकी मुंहमांगी कीमत मिलती है। कुछ लोगों का मानना है कि इस पत्थर को पहनने से बीमारियां दूर भागती हैं।


पौराणिक मान्यता:- पौराणिक मान्यताओं के मुताबिक, केन नदी का पुराना नाम ‘कर्णावती’ नदी था। बाद में इसे ‘किनिया’ और फिर ‘कन्या’ कहा जाने लगा। अब इसे केन नदी कहा जाता है। ‘केन एक कुमारी कन्या है’ का उल्लेख महाभारत काल में मिलता है।


आज अपने ही घर बांदा में शजर पत्थर बेघर सा हो गया हैं:- कभी इस पत्थर को निकालने के लिए कारीगर बरसात में केन नदी के किनारे कैंप लगाते थे। नदी से पत्थर को पहले निकालना फिर उसको तराशना और फिर उसको मनचाही रूप में ढालना ये सब छोटे छोटे कारखानों में होता था। पीढियों से ये हुनर चला आ रहा था, पहले पत्थर की कटाई और घिसाई होती हैं। उसके बाद इसको मनचाहे आकर में ढाल दिया जाता है। फिर पॉलिश कर के चमक लायी जाती हैं, शजर को नया रूप देने में अभी भी कोई बहुत विकास नयी हुआ हैं। काम हाथ से और मात्र एक घिसाई मशीन से होता है, ऐसे यूनिट्स को बांदा में कारखाना कहते हैं, तैयार शजर पत्थर को क्वालिटी के हिसाब से 1, 2, 3 ग्रेड में रखा जाता है और फिर उसकी कीमत लगायी जाती हैं। कीमत सोने चांदी में जड़ने के बाद और बढ़ जाती हैं। लेकिन आज अपने ही घर बांदा में शजर पत्थर बेघर सा हो गया हैं। कद्रदान बहुत हैं लेकिन सीधे बेचने का कोई तरीका नहीं हैं इसीलिए मुनाफा घटता गया और लोग ये काम छोड़ते गए, ज्यादा मुनाफा तो बिचौलिए ले जाते हैं, यहां से सौ रुपये की चीज वो विदेशी मार्किट में सौ डालर में बेचते हैं। कुछ साल पहले तक बांदा में 34 ऐसे कारखाने थे जहां शजर पत्थर को तराशा जाता था, लेकिन अब कुल चार बचे हैं। अब सवाल यह है कि शजर जैसे बेशकीमती पत्थर को संवारने वालो का हाल आखिर कब सुधरेगा।।

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