चंडीगढ़ : समागम में भारत व विश्व से लाखों की संख्या में श्रद्धालुओं के सम्मिलित होने की सम्भावना है। आप इसे संगत कहे या सत्संग, संत निरंकारी मिशन में यह संतों महात्माओं का एक पावन संगम हैं। यहाँ का प्रत्येक सदस्य ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति करके आध्यात्मिक रूप से जागरूक होता है। सभी को सद्गुरु द्वारा उनके पिछले तमाम दोषों अथवा कमियों को क्षमा करके उन्हें अपनाया होता है। यहाँ सद्गुरु धर्म, जाति, संस्कृति, सामाजिक व आर्थिक स्थिति अथवा योग्यता को महत्व न देकर सभी को समान समझकर ब्रह्मज्ञान प्रदान करते हैं।
सत्य का प्रचार करने के लिए व्यक्तिगत् सम्पर्क स्थापित करना, आमने-सामने होकर चर्चा करना यह सब से प्राचीन माध्यम रहा है। मिशन के संस्थापक बाबा बूटा सिंह जी व उनके सहयोगी बाबा अवतार सिंह जी ने भी व्यक्तिगत रूप से चर्चा से ही आरम्भ किया जो धीरे-धीरे औपचारिक सत्संग का रूप बनता गया। काफी समय के उपरान्त मिशन ने बड़े स्तर पर मीडिया, पत्रिकाओं, साहित्य और हाल ही में इंटरनेट व अन्य दूर संचार माध्यमों की सहायता लेना आरम्भ किया।
कोई छोटा सत्संग कार्यक्रम हो या विशाल समागम इसका उद्देश्य, अधिक से अधिक लोगों को मिशन की विचारधारा व दर्शन से अवगत कराना, अधिक से अधिक लोगों को ईश्वर बोध प्राप्त कर मिशन से जुड़ने के लिये प्रेरित करना और जो मिशन से जुड़े हैं, उनके विश्वास में दृढ़ता लाना व अंधविश्वासों से बचाना होता है।
संत निरंकारी मिशन के सत्संग में सद्गुरु की उपस्थिति अनिवार्य है। श्रद्धालुओं के लिए सद्गुरु ही साकार रूप में निराकार ईश्वर का प्रतिनिधित्व करता है। इस प्रकार भक्त सद्गुरु के दर्शन करके, उनसे बात करके या उनके पवित्र चरणों का स्पर्श पाकर अपने आप को परम सौभाग्यशाली मानते हैं। विशाल समागमों में सद्गुरु की दूर से ही नज़र पड़ जाये तो भक्त आनन्द का अनुभव करते हैं, तृप्त हो जाते हैं।
सद्गुरु का प्रत्येक सत्संग में व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होना सम्भव नहीं हो पाता है अतः अकसर किसी श्रद्धालु भक्त द्वारा ही उनका प्रतिनिधित्व किया जाता है। ब्रह्मज्ञान प्राप्त कोई भी भक्त सद्गुरु का प्रतिनिधित्व करते हुये सत्संग की अध्यक्षता कर सकता है। हम उन्हें ’सद्गुरु स्वरूप’ कहते हैं। सद्गुरु की आध्यात्मिक शक्तियों का प्रतीक - सफेद दुपट्टा जब भक्त धारण करता है तो उसकी अपनी पहचान सद्गुरु में ही समाहित हो जाती है और हम उसके चरणों में उसी भावना से नमस्कार करते हैं जैसे सद्गुरु के पावन चरणों मेंझुकते हैं। हमारा विश्वास है कि भक्त के द्वारा दिया गया आशीर्वाद भी सद्गुरु का आशीर्वाद ही होता है। इतना ही नहींउस भक्त के विचार भी सद्गुरु के पावन प्रवचनों के तुल्य माने जाते हैं।
यह सत्संग कार्यक्रम हमारे घरों में, पार्कों या अन्य किसी भी स्थल पर कहीं भी आयोजित किया जाये वह स्थान ही पवित्र हो जाता है। ऐसा माना जाता है कि हर भक्त के शरीर से कुछ ऐसी तरंगें प्रस्फुटित होती हैं जो सकारात्मक, शुभ तथा पावन होती हैं। यह तरंगें हमारे शरीरों के पाप धो देती हैं और पूरे वातावरण को आध्यात्म्किता की सुगन्ध से भर देती हैं। यही कारण है कि ऐसा माना जाता है कि सत्संग में सम्मिलित होना ही एक वरदान है भले ही सत्संग के दौरान कोई नया भक्ति गीत, कविता या व्याख्यान सुनने को न भी मिले।
निरंकारी सत्संग वह स्थान है जहाँ ईश्वर के साथ हमारा नाता जोड़ा जाता है हमें ईश्वर का ज्ञान प्रदान किया जाता है और यह भी सिखाया जाता है कि अपने दिन-प्रतिदिन के जीवन में इसका लाभ किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है। सभी परिस्थितियों में मुस्कुराते रहने की कला सीखने के लिये संतों का सान्निध्य व सत्संग एक आदर्श स्थान है। यहाँ मनुष्य के विचारों तथा कर्म को ऐसे सद्गुणों से सम्पन्न किया जाता है जिनसे उसका स्वयं तथा आस-पास के लोगों के प्रति दृष्टिकोण विशाल हो जाता है। इससे उस में आत्मविश्वास की एक सुदृढ़ भावना का विकास होता है और वह बाहर की दुनिया के प्रति सद्भाव रखता है। वह प्रकृति के साथ भी एक होना सीखता है और इसके जादुई सौन्दर्य का आनन्द प्राप्त करता है। वह प्रत्येक जड़ व चेतन के साथ प्रेम करता है। उसकी अन्तर्रात्मा करूणा व उदारता से ओत-प्रोत हो जाती है।
जब मनुष्य एक बार सर्वव्यापी रचयिता ईश्वर को जान जाता है तो वह इसकी रचना की भी सराहना करता है, प्रशंसा करता है और उससे प्रेम करने लगता है। वह समस्त मानव जाति के प्रति सद्भाव रखता है। वह जान जाता है कि प्रत्येक इंसान एक ही दिव्य नूर से प्रकाशित है और एक ही परम पिता परमात्मा का प्रतिरूप है। वह जान जाता है कि ईश्वर न केवल सृष्टि का निर्माता है, इसका पालनकर्ता व संहारकर्ता भी है। वह कर्म के सिद्धान्त को पुर्णतः समझ जाता है और जो सर्वशक्तिमान है उस पर ही परिणाम छोड़ देता है और जब समय आता है तो ईश्वर की रज़ा को सहज स्वीकार लेता है।
आध्यात्मिक सत्संग में भक्त को ऐसे लोगों का संग मिलता है जो भिन्न-भिन्न भाषाओं के बोलने वाले, भिन्न-भिन्न सामाजिक तथा धार्मिक परम्पराओं को मानने वाले और अलग-अलग खान-पान व वेशभूषा वाले होते हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से सभी एक ही हैं। वे अनेकता में एकता, परस्पर प्रेम, शान्ति एवं आध्यात्मिक चेतना में पूरी तरह स्थित होते हैं वे हर प्राणी में ईश्वर के दर्शन करते हैं।
संतों का सानिध्य इंसान को ईश्वर के भिन्न-भिन्न नामों के कारण होने वाले झगड़ों से मुक्त करता है। यहाँ उसे ईश्वर के परम अस्तित्व का बोध कराया जाता है जिसे विभिन्न नामों से पुकारा जाता है। यहाँ ईश्वर के बारे में बताया जाता है कि ना इसका कोई अपना धर्म है ना साम्प्रदाय। अतः हर व्यक्ति की आत्मा के लिए भी किसी धर्म से जुड़े कर्म-काण्ड, रीति-रिवाज अथवा परम्पराओं की आवश्यकता नहीं होती। इस प्रक्रिया से मनुष्य मानव जाति की मौलिक एकता का अनुभव करता है जिससे सभी प्रकार के भेद-भावों से ऊपर उठ जाता है। इससे भी आगे, वह धार्मिक सहनशीलता तथा साम्प्रदायिक सद्भाव में विश्वास रखने वाला बन जाता है। मन से घृणा तथा हिंसा के सभी भाव समाप्त हो जाते हैं, अंदर बाहर शांति स्थापित हो जाती हैं।
आज जिन नैतिक मूल्यों का अभाव होता जा रहा है वह संतों की संगति में पुनः पनपने लगते हैं। संत मानव को विनम्रता तथा शालीनता की शिक्षा प्रदान करते हैं। नकारात्मक भावनाएं दूर रहती हैं और प्रेम, करूणा, नम्रता, क्षमा, दया, सहयोग की भावना एवं उदारता जैसे दिव्य गुण उनका स्थान ले लेते हैं। मनुष्य के स्वभाव में ही घृणा के स्थान पर प्रेम, ईर्ष्या के स्थान पर सहयोग तथ हिंसा के स्थान पर अहिंसा आती चली जाती है। ईश्वर की हर रचना सुंदर आकर्षक तथा सत्य दिखाई देने लगती हैं और मनुष्य को यह भी अहसास हो जाता है कि यह सभी कुछ मानव जाति के कल्याण के लिए बना है। अब मानव मन धरती का रूप बिगाड़ने अथवा नुकसान करने से संकोच करेगा। एक ऐसी संस्कृति का निर्माण होगा जहाँ मानव जाति शांति तथा शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व एवं विश्वबंधुत्व की भावना से स्मृद्धि की ओर अग्रसर होगा।
इस प्रकार निरंकारी सत्संग मुख्य रूप से ऐसे संतों का मिलन है जिन्हें ईश्वर प्रभु परमात्मा का ज्ञान प्राप्त है। यहाँ सद्गुरु स्वयं अथवा अपने किसी भक्त के माध्यम से उपस्थित रहता है और हर एक को ब्रह्मज्ञान के आधार पर जीने की शिक्षा मिलती है। यहाँ किसी प्रकार के रीति-रिवाज के लिए कोई स्थान नहीं जो हमें बाहर हर जगह देखने को मिलते हैं। यहाँ परमात्मा के परम अस्तित्व को जानने के बाद ही उसका गुणगान किया जाता है। अतः हर भक्त निरंकारी सत्संग में निरंतर भाग लेने के लिए तत्पर रहता है ताकि ईश्वर के प्रति उसकी भक्ति सुदृढ़ हो, सद्गुरु में आस्था बनी रहे।

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