भगवान ऋषभ जैन धर्म मे प्र्रमुख स्थान है, वे जैनियों के ही नहीं हिंदू और सभी धर्मों के प्रवर्तक माने हैं, जिन्होने जैन धर्म के अलावा अन्य धर्मो की नींव रखी। तीर्थंकर का अर्थ होता है जो तीर्थ की रचना करें। जो संसार सागर से मोक्ष तक के तीर्थ की रचना करें, वह तीर्थंकर कहलाते हैं। ऋषभदेव जी को आदिनाथ भी कहा जाता है। जैन पुराणों के अनुसार अन्तिम कुलकर राजा नाभिराज के पुत्र ऋषभदेव हुये। ये शब्द मनीषीसंतमुनिश्रीविनयकुमारजीआलोक ने श्रीमती कृष्णा यशपाल मित्तल के आवास पर कहे।
इस अवस पर मुनि अभय कुमार ने कहा अक्षय तृतीया पर्व पर दान का विशेष महत्व है। इस दिन भगवान आदिनाथ को राजा श्रेयांस ने हस्तिनापुर में गन्ने के रस का आहार दिया था।
मनीषीसंत ने आगे कहा कैलाश पर्वत पर ही ऋषभ को कैवलय ज्ञान प्राप्त हुआ। एक वर्ष से कुछ अधिक समय तक उन्हे ना भोजन मिला और ना ही पानी मिला वे चलते रहे और आज के दिन श्रेयांस ने उन्हे इक्षु रस बहराया ओर भगवान का पारना हुआ इसलिए आज का दिन अक्षय है कभी न टूटने वाला दिन है।
भागवत पुराण में ऋषभदेव को जैन धर्म की परम्परा का संस्थापक बताया गया है। जैन परम्परा के प्रथम प्रणेता भगवान ऋषभदेव की स्मृति भागवत पुराण में उल्लेखित नहीं होती तो हमें ज्ञात ही नहीं हो पाता कि भारत के प्रारम्भिक इतिहास में, मतलब मनु की पाँचवी पीढी में एक राजा ने अपना राज्य कुशलता पूर्वक चलाया था और उसने कर्मण्यता व ज्ञान का प्रसार भी किया था। वह स्वयं में एक महान दार्शनिक था।
मनीषीश्रीसंत ने अंत मे फरमाया महिला आज समाज के हर क्षेत्र मे प्रताडित होती है उसे समानता का अभी तक दर्जा नही मिल पाया इस सबंध मे भगवान ऋषभ ने कहा था कि स्त्री के कारण ही जीवन की उत्पत्ति हुई है। अगर जननी का जीवन ही शोषण से भरा हुआ है तो हम कभी भी उन बुंलदियो व ऊंचाईयों को ऊंचाईयां नही कह सकते। भगवान ऋषभ ने हजारो साल पहले ही महिला शक्तिकरण की बात कही लेकिन दुर्भागय की बात है कि आज भी हम हजारो साल पीछे ही खडे।
भगवान शिव और ऋषभदेव की वेशभूषा और चरित्र में लगभग समानता है। दोनों ही प्रथम कहे गए हैं अर्थात आदिदेव। दोनों को ही नाथों का नाथ आदिनाथ कहा जाता है। दोनों ही जटाधारी हैं। दोनों के लिए ‘हरÓ शब्द का प्रयोग किया जाता है। आचार्य जिनसेन ने ‘हरÓ शब्द का प्रयोग ऋषभदेव के लिए किया है।
दोनों ही कैलाशवासी हैं। ऋषभदेव ने कैलाश पर्वत पर ही तपस्या कर कैवल्य ज्ञान प्राप्त किया था। दोनों के ही दो प्रमुख पुत्र थे। दोनों का ही संबंध नंदी बैल से है। ऋषभदेव का चरण चिन्ह बैल है। शिव, पार्वती के संग हैं तो ऋषभ भी पार्वत्य वृत्ती के हैं। दोनों ही मयूर पिच्छिकाधारी हैं। दोनों की मान्यताओं में फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी और चतुर्दशी का महत्व है। शिव चंद्रांकित है तो ऋषभ भी चंद्र जैसे मुखमंडल से सुशोभित है।
देशभगत यूनिवर्सिटी के उपकुलपति डा वरिद्र मित्तल ने कहा पर्युषण पर्व को जैन समाज में सबसे बड़ा पर्व माना जाता है, इसलिए इसे पर्वाधिराज भी कहते हैं. उन्होने कहा वैशाख शुक्ल तृतीया के दिन तीर्थंकर ऋषभदेव को सर्व प्रथम हस्तिनापुर के राजा सोम और श्रेयांस ने इक्षुरस का आहार दिया था। सामूहिक भोज में जितनी आवश्यकता है उतना ही थाली में लें, जूठन न छोड़े
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